वसुन्धरा में आओ बढ़े बुढ़ापे से जवानी की ओर कार्यक्रम आयोजित

वसुन्धरा में आओ बढ़े बुढ़ापे से जवानी की ओर कार्यक्रम आयोजित
satyug darshan faridabad,
कार्यक्रम के दौरान नृत्य पेश करते छात्र

todaybhaskar.com
faridabad। भूपानी स्थित सतयुग दर्शन वसुन्धरा पर एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम का शीर्षक था  आओ बढ़ें बुढ़ापे से जवानी की ओर।  इस सन्दर्भ में मैनेजिंग ट्रस्टी रेशमा गांधी ने हमारे संवाददाता को बताया कि, स्वभावों की  कठिन अवस्था में फँसे होने के कारण आज अधिकतर मानव शारीरिक-मानसिक व आत्मिक रूप से क्षीण व दुर्बल हो चुके हैं, ऐसे सभी सजनों को पुन: समभाव-समदृष्टि की युक्ति अनुसार आत्मिक ज्ञान प्राप्त कर, नौजवान युवावस्था में आने हेतु प्रेरित करने के लिए इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया है।
इस अवसर पर उपस्थित सभी सजनों को युवावस्था के बाद बुढ़ापा कयों आता है, इस विषय से परिचित कराते हुए ट्रस्ट के मार्गदर्शक सजन ने कहा कि जब कोई समभाव-समदृष्टि की युक्ति के विपरीत मनगढंत चलन अपना स्वार्थपर हो जाता है और उसके ह्मदय में सजनता के स्थान पर द्वि-द्वेष, वैर-विरोध, छल-कपट घर कर जाता है तब ही दंड रूप में बुढ़ापा सताता है। तात्पर्य यह है कि इन विकार वृतिायों के प्रभाव से जब मानव, मानवता के प्रतीक दैवीय कर्मों के स्थान पर दानवीय कर्मों जैसे मार-काट, हिंसा, दुराचार, भ्रष्टाचार व व्यभिचार आदि जैसे अधर्म व कुकर्म युक्त पाप कर्मों का नमूना अपने आहार-विचार-आचार व व्यवहार द्वारा दर्शाता है तो उसका शरीर व मन-मस्तिष्क दोनों रोगी हो जाते हैं। परिणामस्वरूप आधि-व्याधि का रूप धार मानव को बुढ़ापा सताता है। हम कह सकते हैं कि तब आत्मा और परमात्मा की शाश्वतता, शाश्वत जीवन और शाश्वत मूल्यों में विश्वास, नैतिक व्यवस्था को भौतिक व्यवस्था से उच्चतर मानने में विश्वास तथा इन विश्वासों के अनुसार आचार-व्यवहार अपनाने पर से इंसान का मन चलायमान हो जाता है तभी मानव बनावटी जीवन जीना बदनीयती का चलन अपनाता है और मानवता से गिर जाता है। आज के समाज की नैतिक पतनता का मुखय कारण यही है।
किसी  जिज्ञासु के यह पूछने पर कि यह कैसे होता है, सजन ने कहा कि युवावस्था में समरस बने रहने के विचार पर मानव जब ध्यान स्थिर नहीं रह पाता और उसकी बुद्धि से विचार ईश्वर अपना अठस का सत्य छूट जाता है तो मंद बुद्धि इंसान उस शक्तिशाली ब्राहृ भाव के अनुकूल मन का संचालन करने में असक्षम हो जाता है। इस प्रकार मन से सन्तोष छूट जाता है और भ्रमित बुद्धि इंसान सांसारिक अज्ञान धारणा के प्रभाव से संशय रूपी रोग से ग्रसित हो, निज तृष्णा पूर्ति्त हेतु विषय-विकारों में फँस जाता है। तभी तो  उसकी शारीरिक-मानसिक स्वस्थता के हेतु असंमय जरम-जहरीले विभिन्न रोगों का रूप धार उसके अन्दर उत्पन्न हो जाते हैं और उसकी युवावस्था भंग होने की क्रिया आरमभ हो जाती है। परिणामस्वरूप इन्सान की जवानी दुई-द्वेष व तृष्णा की बली चढ़ जाती है और बुढ़ापा सिर पर सवार हो बहुत तड़पाता है।
सजन जी ने कहा कि सत्य से वियोग और जगत से योग होना ही मन में नकारात्मक वृतिायों के पनपने का मुख्य कारण है। नकारात्मक वृतिायों के कारण ही इंसान बुरा सोचता, बोलता व करता है और शक्की मिज़ाज हो असत्य के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। इससे खुद पर तो नकारात्मक प्रभाव पड़ता ही है साथ ही सबके प्रति भी आत्मभाव यानि सजनता का भाव छूट जाता है यानि इन्सान मतलबी हो हिंसक वृतिा अपनाता है। ऐसा स्वार्थी इन्सान ही शारीरिक व मानसिक रूप से क्षीण हो जाता है और उसका आत्मिक बल कमज़ोर पड़ जाता है। इससे वह आत्मविश्वास व आत्मसंयम रखने में असक्षम हो जाता है। ऐसे में शास्त्र का कनरस छूट जाता है और संसार का कनरस पड़ जाता है। परिणामस्वरूप अलगाववाद, निंदा-चुगली,लड़ाई-झगड़ा, आपसी तनाव आदि सभी रोगों के हेतु माँसपेशियों को खा जाते हैं। इस प्रकार जवानी लुट जाती है और गुलामी का प्रतीक बुढ़ापा मानसिक अवसाद का कारण बनता है। यह हम सब जानते ही हैं कि यह बीमारी लाईलाज होती है और जिस घर का एक भी सजन इस बीमारी का शिकार हो उस घर में कभी भी सुख शांति का निवास नहीं हो सकता। इसलिए तो आज घर-घर में सब झुखने-रोने के स्वभावों से परेशान हैं। जानो यही स्थिति ही वास्तव में कलुकाल का रूप है। ऐसे कलियुगी भाव-स्वभावों में फँसे हुए मानव को हर तरफ़ से धिक्कार प्राप्त होती है। इसी हताशा से तडफ़ते-तडफ़ते एक दिन जीवन का अंत हो जाता है और जीव सतयुग में प्रवेश करने से वंचित रह जाता है।
अंत में सजन जी ने कहा कि अगर हम जवानी में ही बुढ़ापे का शिकार हो इस बुरे अंत को प्राप्त नहीं होना चाहते तो हमें युवावस्था का भक्ति भाव अपना सदा एकता व एक अवस्था में मजबूती से बने रहना  होगा। इस प्रकार आत्मिक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा सात्विक आहारी व सत्य के व्यापारी बन वैसा ही आचार व्यवहार करते हुए सदाचार में बने रहना होगा। इस तरह निज यथार्थ शक्ति का बोध करते हुए संतोष-धैर्य की ताकत से सच्चाई धर्म के रास्ते पर बने रह निष्काम कर्म द्वारा परोपकार कमाना होगा व उसी पर निर्विघ्न बने रह अपने जीवन का लक्ष्य यानि परमपद प्राप्त करना होगा।

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