Todaybhaskar.com
faridabad| जैस कि विदित ही है कि सतयुग दर्शन ट्रस्ट (रजि0), फऱीदाबाद, आरमभ से ही समाज के प्रत्येक आयु वर्ग के सदस्यों के चारित्रिक उद्धार के प्रति प्रतिबद्ध होकर, तरह-तरह के आयोजनों के माध्यम से सामाजिक उत्थान में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है। इसी संदर्भ में ट्रस्ट ने नववर्ष की पूर्व संध्या पर बड़े ही उत्कृष्ट व सुन्दर ढंग से, वर्तमान युवाओं को आत्मशुद्धि करने का आवहान दिया।
इस अवसर पर ट्रस्ट के मार्गदर्शक श्री सजन जी ने उपस्थित सजनों को कहा कि हमारा वास्तविक स्वरूप विशुद्धता का प्रतीक है। इस स्वरूप का बोध करने हेतु आध्यात्मिक शिक्षा अनिवार्य है। आध्यात्मिक शिक्षा के लिए आत्मशुद्धि अति उत्तम साधन है। आत्मशुद्धि से तात्पर्य मन और शरीर इन दोनों की पवित्रता से है। इस आधार पर आत्मशुद्धि दो प्रकार की है – आन्तरिक एवं बाह्र यानि मानसिक शुद्धि एवं शारीरिक शुद्धि। मानसिक शुद्धि को अन्त:करण की शुद्धि भी कह सकते हैं। यद्यपि आध्यात्मिक साधना हेतु अन्दरूनी व बैहरूनी दोनों प्रकार की शुद्धियाँ आवश्यक मानी जाती हैं तथापि शारीरिक पवित्रता से अधिक चित्त-वृत्तियों की पवित्रता तथा वासनादि के क्षय का महत्व है। आन्तरिक शुद्धि से तात्पर्य अपने शारीरिक स्वभावों की सफाई करने से है।
इस हेतु जिह्वा को स्वतन्त्र, संकल्प को स्वच्छ व दृष्टि को कंचन रखने से है। बैहरूनी शुद्धि से तात्पर्य अपने शरीर, परिधान (वस्त्र), खुराक, आसपास के वातावरण व व्यवहार यानि रैहनी-बैहनी की स्वच्छता से है। उन्होने कहा कि जहाँ आन्तरिक शुद्धि, मानसिक रूप से हमें स्वस्थ व स्वच्छ रखने के साथ-साथ, हमारे व्यक्तित्व व चरित्र को निखारती है तथा सज्जन व श्रेष्ठ पुरूष बनने में हमारी सहायक सिद्ध होती है, वही बैहरूनी शुद्धि हमें शारीरिक रूप से स्वस्थ व स्वच्छ बनाने के साथ-साथ हमारे आचरण व व्यवहार को उत्तम बनाकर हमें सब की नजऱों में सुन्दर, स्पष्ट व मधुर बनाती है। अत: पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए अन्दरूनी व बैहरूनी दोनों ही वृत्तियों की स्वच्छता को अपनाना होगा तभी हम प्रत्येक कार्य करने में दक्ष हो सकते हैं और आत्मविश्वासी व स्वावलंबी बन सकते हैं।
सजन जी ने आगे सजनों को समझाया कि आन्तरिक शुद्धि के लिए अपने अंत: करण को स्वच्छ दर्पण सा पारदर्शी बनाना होगा। इसके दर्पण होने की कल्पना तभी साकार होगी, जब उसमें परमात्मा का प्रतिबिमब पूर्ण रूप से दिखाई देने लगेगा। इस हेतु भाव शुद्धि अनिवार्य समझो। भाव शुद्धि हेतु सर्वश्रेष्ठ ब्राहृ भाव को धारण करो तथा आत्मनिरीक्षण व आत्मनियंत्रण प्रक्रिया द्वारा मनोभावों की त्रुटियाँ/दोष को दूर करके उन्हें सुधारो व अपने आचार-विचार को स्वच्छ, सुन्दर व सुसंस्कृत बनाओ। इस संदर्भ में याद रखो आत्मिक ज्ञान आत्मशुद्धि का सर्वोात्तम साधन है।
अत: आत्मज्ञान रूपी मिट्टी और वैराग्य रूपी जल से मन के मैल को धोवो और इन्द्रिय-निग्रह द्वारा च्मैज् और च्मेराज् के अहंभाव का परित्याग करो। इस तरह अपने मन की पूर्ण निर्मलता हेतु काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार जैसे स्वार्थपर दुर्गुणों का उन्मूलन करो।
इस संदर्भ में मत भूलना कि मन का पंच विकारों से मुक्त हो वासना-रहित होना निर्मलता है तथा बुद्धि के धरातल पर अहंकार का विसर्जन निर्मलता है। इसका श्रेष्ठतम रूप है – ‘मैं शरीर नहीं हूँ, चैतन्य हूँ ज्। इस आधार पर च्विचार ईश्वर आप नूं मानज् इस सत्य को आत्मसात् कर अपने आप को सदा एक अवस्था में साधे रखो।
आशय यह है कि मन को दु:ख-सुख, शोक-हर्ष आदि द्वन्द्वों से रहित, संकल्प रहित अवस्था में बनाए रखो और ए विध् अपने शारीरिक स्वभावों का टेमप्रेचर सम रख निर्विकारी बने रहो। इस हेतु दिल को सदा ईष्र्या, द्वेष और आपस की फूट से अलग रखो। बुरी बातों और ऐसे सजनों के कुसंग से सदा बच कर रहो जिन के अन्दर और बाहर कुछ और हो। इस तरह न बुरा सोचो, न बुरा बोलो व न ही किसी का बुरा करो अपितु अपने अन्दर सद्गुणों एवं सात्विक वृत्तियों का निरन्तर विकास करने हेतु, वैसा ही पढ़ो, वैसा ही सुनो, वैसा ही कहो, वैसा ही सोचो जिससे अन्तरमन कलुषित न हो। ऐसा करने से सद्गुणों की वृद्धि होगी और नैतिक रूप से अपने आपको ऊँचा उठाने में सहायता प्राप्त होगी।
सजन जी ने सजनों से कहा कि चूंकि आपकी आन्तरिक शुद्धता आपके ह्मदयगत विचारों, आचरण व व्यवहार से परलक्षित होगी, अत: अपने चोले को बेदाग रखने के लिए, मानसिक एवं भौतिक दोनों धरातलों पर, अपने भावों, आचार-विचार व व्यवहार का अध्ययन करते हुए सचेतन बने रहना। इस संदर्भ में यह भी मत भूलना कि आत्मशुद्धि की पराकाष्ठा वहीं मानी जाती है जहाँ मनसा, वाचा, कर्मणा तीनों धरातल पर समभाव अभिव्यक्त होता है यानि ज्ञान, इच्छा, कर्म तीनों उज्जवलता भाव से संयुक्त होते हैं। यह पूर्ण चेतनता की अवस्था मानी जाती है। अत: शुद्ध आत्मा की तरह सजग होकर इस चरम सत्य की अनुभूति करने में कामयाब होना।