समान अधिकार दे दो तुम

समान अधिकार दे दो तुम
poet sharda mittal
कवियत्री शारदा मित्तल

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समान अधिकार दे दो तुम
दासी नहीं ,संगिनी हूँ प्रियतम
नियंत्रण में रखना छोड़ो तुम ।
सदैव करते हो अपने मन की
कभी मेरे मन की भी जानो तुम।
कभी ढाल बनती हूँ _
कभी तलवार बनती हूँ ।
हर रिश्ते में ही ऐ पुरुष
मैं तेरी ताबेदार बनती हूँ ।
पिता को हक है , भाई को हक है
पति को हक है, पुत्र को भी हक है मुझपर – कभी खुदपर
हकदार मुझे बनाकर देखो तुम ।
तुम्हारे ही जैसा रक्त दौड़ता है
मेरी धमनियों में भी ,
तुमसे भी अधिक पीड़ा
होती है मेरी संवेदना को ।
ठहरो ऐ पुरुष !
अपनी वासना की पूर्ति हेतू
निर्भया बनाकर यूं पैरों तले
रौदना छोड़ो तुम ।
अपनी वासना की पूर्ति हेतू
निर्भया बनाकर यूं पैरों तले
रौदना छोड़ो तुम ।मजबूर हो गई है नारी चेतना
तुम्हारे दंभ के विरुद्ध
आवाज़ उठाने को ।
क्यों नहीं सदियों से आहत
मेरे मन को  –
स्वेच्छा से समान अधिकार
दे दो तुम ,
समान अधिकार दे दो तुम ।
ये मेरा बड़प्पन है कि
समर्थ होकर भी माँग रहीं हूँ तुमसे।
मेरे ये अधिकार छीनने के लिए
मजबूर मत करो तुम
मजबूर मत करो तुम ।
स्वेच्छा से समान अधिकार दे दो तुम ।
समान अधिकार दे दो तुम ।।

-साभार कवियत्री शारदा मित्तल

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