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faridabad| सभी की सूचनार्थ भूपानी स्थित, सतयुग दर्शन वसुन्धरा के प्रांगण में आज ट्रस्ट का वार्षिक उत्सव प्रात आठ बजे भरपूर हर्षोल्लास से प्रारंभ हुआ। हज़ारों श्रद्धालुओं ने नतमस्तक होकर इस पावन बेला का आनन्द उठाया।
आरभभिक विधि के उपरान्त यहाँ उपस्थित सजनों को ट्रस्ट के मार्गदर्शक श्री सजन जी ने बताया कि सतवस्तु का कुदरती ग्रन्थ, (जो कि सतवस्तु के वाली श्री साजन जी का जीवन चरित्र है व जिसके अंतर्गत विगत तीन युगों के साथ-साथ आने वाले स्वर्णिम युग यानि सतयुग के संविधान का सविस्तार वर्णन है) हम सब सजनों को सजन श्री शहनशाह हनुमान जी की चरण-शरण में आ, उन द्वारा प्रदत युवावस्था की भक्ति यानि समभाव-समदृष्टि की युक्ति प्रवान कर, उन जैसा ही श्रेष्ठ, विद्वान, गुणवान, बलवान, धनवान, बुद्धिमान व ज्ञानवान बनने के लिए प्रेरित कर रहा है। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक व वैश्विक हित के लिए महता्वपूर्ण इस बात के दृष्टिगत सजनों हम सबके लिए बनता है कि हम इस कुदरती ग्रन्थ की वाणी का सत्कार व सममान करते हुए, इन सद्गुणों को धार, न केवल स्वयं एक नेक व सदाचारी इंसान बनें अपितु आने वाली पीढिय़ों को भी इसी राह पर प्रशस्त करने की दक्षता दिखाएं।
इसी संदर्भ में उन्होंने आज सर्वप्रथम श्रेष्ठ का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि जो व्यक्ति सबसे अच्छा व सबसे बढक़र होता है, उसे श्रेष्ठ कहते हैं कयोंकि उसमें श्रेष्ठ होने का गुण या भाव होता है।
श्रेष्ठ ही सर्वोपरि व प्रधान शासक होने का अधिकारी होता है कयोंकि वह ही मन को वश में रखते हुए व अपने आप में अत्यंत प्रसन्न बने रहते हुए, अपनी, पारिवारिक व सामाजिक समृद्धि का हेतु होता है व अपनी श्रेष्ठता के कारण सबको अत्यंत प्रिय होता है। इसीलिए शंख, चक्र, गदा, पद्मधार श्री विष्णु भगवान को श्रेष्ठतम आद् पुरूष, निरंकार, ज्योतिस्वरूप, परब्राहृ परमेश्वर की संज्ञा प्राप्त है।
इसी प्रकार सतयुग की सभयता भी सबसे प्रधान व उत्कृष्ट मानी जाती है और उसी सभ्यता को यथा अपनाकर, मन-वचन-कर्म द्वारा दर्शाने में सक्षम व्यक्ति ही श्रेष्ठ पद को प्राप्त करने का अधिकारी होता है।
सजन जी ने कहा कि इसीलिए सतवस्तु का कुदरती ग्रन्थ हर मानव को समभाव-समदृष्टि की युक्ति, जो सजन-भाव की पढ़ाई व गुढ़ाई है, उस द्वारा श्रेष्ठता अपनाने का आवाहन दे रहा है ताकि वह अपने स्वभावों का टैमप्रेचर सम रखने के काबिल बन सके और संतोष, धैर्य पर स्थिर बना रह सच्चाई-धर्म के रास्ते पर निर्भयता से आगे बढ़ता हुआ निष्काम-भाव से परोपकार कमाने के योग्य बन सके। उनके अनुसार यही एक सर्वोतम मानव के सदाचारी व धर्मज्ञ होने का प्रतीक होता है।
अत: उन्होंने उपस्थित सब सजनों से आत्मनियन्त्रण द्वारा अपना व्यक्तित्व श्रेष्ठतम बनाने का निवेदन किया।
श्रेष्ठ के बाद आगे उन्होंने उपस्थित सजनों को विद्वान शबद का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि विद्या साधारणत चौदह मानी जाती हैं अर्थात् चार वेद, छ वेदांग, धर्म, मीमांसा, तर्क या न्याय और पुराण। विद्या द्वारा किसी भी विषय के ज्ञान-विज्ञान की धारणा से पूर्व उसका यथार्थ पहले खोजना, जानना, समझना, सीखना व अन्य विद्वानों से मालूम करना होता है ताकि हमारी धारणा में केवल अध्यात्म ज्ञान यानि सत्यज्ञान ही उतरे और हम उसी सत्य को ही अपने मन-वचन-कर्म द्वारा दर्शाते हुए हकीकत में सबको विद्वान प्रतीत हों। तभी ही हम इस मिथ्या जगत की असलियत जान सकते हैं और इस प्रकार अविद्या धारणा व अविद्या प्रदान करने की क्रिया से बचे रह अपने यथार्थ में बने रह सकते हैं।
श्री सजन जी ने कहा कि विद्यारूपी दौलत ही सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। जहाँ विद्या रूपी धन एक मनुष्य को विद्वान बनाता है वहाँ उसके ह्मदयों में घमंड रूपी दोष का भी सृजन करता है। विद्या के दो भेद परा और अपरा अति प्राचीन हैं। परा विद्या को आत्मविद्या भी कहा जाता है। यही सबसे उतम विद्या होती है जो सहजता से एक व्यक्ति को श्रेष्ठ बना देती है। सांसारिक जीवन में उपयोगी सभी विद्याएँ अपरा विद्या के अंतर्गत हैं। विद्या अध्ययन और शिक्षा से प्राप्त होने वाला ज्ञान है यानि किसी विषय का व्यवस्थित ज्ञान है।
उनके अनुसार एक विद्वान ही ज्ञान का उपदेश या दान देने के योग्य होता है। विद्या को सदा किसी न किसी विषय में जानने-सीखने का इच्छुक या प्रयत्नशील रहने वाला व्यक्ति ही प्राप्त कर सकता है।
सजन जी ने कहा कि विद्या प्राप्ति के समय ध्यान रखना होता है कि उसमें देश, काल, कला, धर्म, नीति, लोक आदि अथवा शास्त्र के विरूद्ध वर्णन का दोष न हो। इसलिए तो व्यक्ति विशेष के मन में अपने विषय में यानि आत्मा के विषय में जानने की इच्छा का प्रबल होना आवश्यक होता है। उस इच्छा पूर्ति्त हेतु आत्मज्ञान द्वारा आत्म यानि ब्राहृ साक्षात्कार करते हुए अपने अस्तित्व और अपनी गतिविधियों के प्रति बहुत अधिक जागरूक रहने की प्रवृति में ढलना होता है ताकि एक ही भाव यानि समभाव, जो व्यक्तित्व के बदलते रहने पर भी एक निश्चित प्रकार का बना रहता है और जिसके आधार पर वह स्वयं को अद्वितीय समझता है, उसका ज्ञान उसमें बना रहे। इस तरह उस, अपने स्वरूप के ज्ञानी के लिए, आत्मविजय यानि अपने आप को जीतने का पराक्रम दिखाना सहज हो जाए। उन्होंने कहा कि तभी ही आत्मसंतोष की प्राप्ति होती है जिसके बलबूते पर उस मानव के लिए, इस जगत में निस्वार्थ भाव से विचरना व परोपकार के निमित अपने हित को त्यागना संभव हो पाता है। ऐसा विद्वान आत्मनिरीक्षण द्वारा अपने आचरण को सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष से मुक्त रखने हेतु, अपने अंत:करण की विशुद्धता बनाए रखता है और स्वयं ही अपने हित या भविष्य के विषय में, अपना मार्गदर्शन करता है। इस प्रकार वह आत्मविश्वासी अपने ऊँचे आध्यात्मिक लक्ष्य को पाने के लिए अपनी इच्छाओं और सांसारिक स्वार्थों के त्याग हेतु सदा आत्मविद्या की साधना में लीन रहता है और हर प्राणी के प्रति परमात्म-दृष्टि रख पाता है। यह होता है उस श्रेष्ठ मानव के ह्मदय में समदृष्टि रूपा सर्वोतम व्यवहारिक गुण का विकसित होना। श्री सजन जी ने कहा कि चूँकि एक विद्वान व्यक्ति ही श्रेष्ठ मानव बन सकता है इसलिए सब अपने मन में समभाव-समदृष्टि के सबक की पढ़ाई व गुढ़ाई के प्रति विशेष रूचि पैदा करो और इस तरह विद्वान बनो। अंत में इस कार्य की सफलता हेतु उन्होंने सभी को शुभकामनाएँ दी।