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New Delhi\desk| इस खबर से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि एक प्रतिभावान कश्मीरी छात्र मन्नान बशीर वानी आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहीद्दीन में शामिल हो गया है। हालांकि यह चिंता करने वाला प्रसंग अवश्य है। वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पीएचडी का छात्र रहा है। बचपन से यहां तक वह मेधावी छात्र होने के कारण ही पहुंचा है। पीएचडी करने के पहले उसने एमफिल किया और उसमें भी उसके अच्छे अंक आए थे। उसका पूरा छात्र जीवन उज्जवल भविष्य की ओर ले जाने वाला है।
उसके बारे में जानकारी यह भी है कि 2016 में भोपाल के आइसेक्ट विश्वविद्यालय में जल, पर्यावरण, उर्जा एवं समाज अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में उसे सर्वश्रेष्ठ शोध पत्र का सम्मान मिल चुका है। ऐसा युवक यदि अपनी पढ़ाई के अंतिम पायदान में आतंकवादी बन जाए और खुशी-खुशी ए.के. 47 लिए अपनी तस्वीर वायरल कराए तो निश्चय ही एक-एक भारतीय को दुख पहुंचेगा। वही हुआ है। उसका परिवार भी देख लीजिए। उसके पिता जम्मू कश्मीर राज्य स्कूल शिक्षा विभाग में लेक्चरर हैं। उसका एक भाई कनिष्ठ अभियंता है। यानी एक शिक्षित संभ्रांत परिवार से निकला हुआ नवजवान आज हाथों में हथियार थामे अपने ही लोगों का कत्ल करने और हिंसा फैलाने के लिए मैदान में कूद गया है।
अब वह मन्नान बशीर वानी न होकर हमजा भाई है। जब तक आतंकवादी के रुप में वह जीवित रहेगा हमजा भाई के नाम से ही जाना जाएगा। हालांकिकोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति आतंकवादी बनता है तो इसमें आश्चर्य करने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। दुनिया में जितने बड़े आतंकवादी हुए हैं सब एक से एक अच्छी डिग्री वाले। ओसामा बिना लादेन से अयमान अल जवाहिरी तक की डिग्री देख लीजिए। 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हमला करने की साजिश में जितने शामिल थे सब अलग-अलग क्षेत्रों के बेहतर डिग्रीधारी। भारत में आईएसआईएस के कई प्रच्छन्न एजेंट पकड़े गए सब उतने ही पढ़े-लिखे और प्रोफेशनल। अपने साथ ये कम पढ़े-लिखों की भी भर्ती आतंकवादी कार्रवाई के लिए करते हैं, लेकिन ज्यादातर नेतृत्व या कमान उच्च डिग्रीधारियों के हाथों ही रहा है। मुंबई हमले में जिंदा पकड़ा गया अजमल कसाब अवश्य गंवार था, लेकिन उसको प्रेरित करने वाले, प्रशिक्षण देने वालों की सूची देख लीजिए आपको पता चल जाएगा कि उनमंे ज्यादातर अच्छे पढ़े लिखे थे। यहां तक की फौज में मेजर से सेवानिवृत्त व्यक्ति भी थे। इसलिए इस विषय पर ज्यादा बहस की आवश्यकता नहीं कि इतना पढ़ा-लिखा होने के बावजूद मन्नान आतंकवादी क्यों बना? मूल प्रश्न यह हो सकता है कि आखिर जम्मू कश्मीर में ऐसे नवजवान आतंकवादी क्यों बन रहे हैं?
मन्नान या उसके जैसे युवाओं को आतंकवादी बनने के बाद अपने जीवन का हस्र पता है। एक समय था जब आतंकवादियों की उम्र कुछ वर्ष की होती थी। अब तो आतंकवादी बनने के बाद कुछ महीने से ज्यादा उनकी उम्र नहीं होती। कई तो कुछ सप्ताह के अंदर ही मार डाले गए। जबसे कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ ऑल आउट के नाम से बहुपक्षीय सैन्य अभियान चला है आतंकवादियों की उम्र घट गई है। मन्नान बशीर इसका अपवाद हो जाएगा कम से कम इस समय ऐसा कहना कठिन है। दूसरे, इस समय सुरक्षा बल जहां आतंकवादियों के सफाये के लिए अभियान चला रहे हैं वहीं वे उनके माता-पिता और रिश्तेदारों से अपील करवाकर उनको मुख्य धारा में वापसी के लिए भी काम कर रहे हैं। इसका असर भी हुआ है। पिछले कुछ महीनों में ऐसी अपीलों का असर हुआ है और करीब एक दर्जन आतंकवादी आतंकवाद का रास्ता छोड़कर समाज में वापस आए हैं। जम्मू कश्मीर पुलिस एवं प्रशासन की घोषणा है कि जो वापस आएंगे उनको मुख्यधारा में बने रहने मेें हरसंभव मदद की जाएगी। ऐसा हो भी रहा है। इसके साथ नए युवक आतंकवादी न बनें इसके लिए भी कई प्रकार के अभियान चल रहे हैं। इनसे काफी युवक जो आतंकवादियों के संपर्क में आ गए थे एवं आतंकवादी बनने के एकदम कगार थे उनको रोका जा सका है। ऐसी सफलताओं और ऐसे वातावरण के बीच किसी ऐसे व्यक्ति का आतंकवादी बनना निश्चय ही बार-बार यह सोचने के लिए जरुर मजबूर करता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है?
यह तो साफ है कि आतंकवादी समूह कई तरीकों से युवाओं को आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। कौन कहां किस वेष में आतंकवादी बना रहा है यह पता करना मुश्किल है। मन्नान बशीर के बारे मेें अब जानकारी मिली है, लेकिन उसकी छानबीन में सामने आया है कि उसके ही कमरे में रहने वाले यानी रुम पार्टनर मुजम्मिल पिछले वर्ष जुलाई से ही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैम्पस नहीं आया है। ध्यान रखिए, वह भी पीएचडी का ही छात्र है और दोनों एक ही प्रोफेसर के अधीन शोध कर रहे थे। संयोग देखिए, दोनों कुपवाड़ा जिले के ही रहने वाले हैं। तो कहां गया वह? अगर वह पुलिस को नहीं मिलता तो यह मान लेना चाहिए कि आतंकवादी समूह मेें उसका प्रत्यक्ष प्रवेश पहले हो गया था और मन्नान बशीर उसके बाद गया है। छानबीन से ही पता चलेगा कि ये दोनों किसके संपर्क में थे।
यह भी समाने आया था कि आतंकवादी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद मन्नान बशीर ने अभियान चलाया था। बुरहान वानी को शहीद बताते हुए पोस्टर आदि लगाए थे। उस समय भी पुलिस उसके नजदीक पहुंच रही थी, लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने उसे क्लीन चीट दे दी। कहा गया कि वह एक मेधावी छात्र है तथा आतंकवादी या अलगाववादी गतिविधियों से उसका कोई रिश्ता नहीं। यह कहना मुश्किल है कि उस समय आतंकवादी समूहों से किसी प्रकार का उसका रिश्ता बना था या नहीं। किंतु यह कहा जा सकता है कि अगर उस पर कड़ी नजर रखी जाती तो वह पकड़ में आ जाता।
इसे जम्मू कश्मीर का दुर्भाग्य कहिए कि जब भी वहां शांति और स्थिरता की स्थिति बनने की संभावना पैदा होती है उसके समानांतर ऐसी घटनाएं घटने लगतीं हैं कि पूरा माहौल उलट हो जाता है। पाकिस्तान ने पिछले चार सालों में पूरी कोशिश की है कि जम्मू कश्मीर में 1990 के दशक की स्थिति कायम की जाए। इसके लिए अपने यहां से आतंकवादियों को तो भेजो ही, घाटी के अंदर से आतंकवादी पैदा करो। इसमें उसे सफलता भी मिल रही है। 2017 में सुरक्षा बलोें का मानना है कि 120 के आसपास आतंकवादी घाटी से बने हैं। उसके पूर्व 2016 में भी करीब 90 आतंकवादी वहां से बने थे। इसके पूर्व कश्मीर से आतंकवादी बनने की घटनाएं कम हो रहीं थीं। किंतु वहां योजनाबद्ध तरीके से कश्मीर के अलगाववाद का अति इस्लामीकरण किया जा चुका है। अब आतंकवादी वहां केवल कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए संघर्ष नहीं करते। उनकी घोषणा है कि इसे इस्लामिक राज में बदलना है। यानी वहां के संघर्ष को इस्लाम का संघर्ष बना दिया गया है। आखिर जाकिर मूसा के जितने वक्तव्य हमारे सामने आए हैं उनमें यही कहा गया है कि कश्मीर को इस्लामी राज के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं। उसने तो यहां तक कहा है कि कश्मीर की आजादी की मांग करने वाले अलगाववादी यदि इसका विरोध करते हैं तो उनका भी काम तमाम किया जाएगा। इस्लाम के जुड़ जाने से आतंकवाद को नई धार मिली है। अलगाववाद का सामान्य नारे का असर कमजोर पड़ने लगा था। आतंकवादी समूहों ने इसमें बदलाव करके इस्लाम की लड़ाई का नारा दिया और इसमें इतना आकर्षण है कि युवा खींच रहे हैं। पिछले ही दिनों हमने देखा कि एक मुठभेड़ में मारे गए तीन आतंकवादियों में से एक जम्मू कश्मीर पुलिस अधिकारी का 17 वर्षीय बेटा था जो तीन महीने पहले ही आतंकवादी बना था। जाहिर है, मन्नान बशीर जैसे के आतंकवादी बनने के पीछे मजहब मुख्य कारक होगा। मजहब के लिए मरने का विचार इतना भाव-विभोर कर देता है कि फिर उसके सामने आदमी को कुछ सूझता ही नहीं। अगर जीते तो इस्लाम की जीत और अगर मारे गए तो इस्लाम के लिए जिसमें जन्नत मिलनी है। तो अब विचार करने की आवश्यकता यह है कि आखिर इस मजहबी आकर्षण को वहां कैसे खत्म किया जाए। जब तक इस्लामीकरण का खतरनाक विचार कायम रहेगा ऐसे आतंकवादी बनते रहेंगे।